जबलपुर। गुरुकुल के जिनालय में दीप जल रहा था, ज्योति प्रज्जवलित थी। गहरे आनंद में, गहरे ध्यान में डूबकर मंत्र-विधि, भक्ति विधि, प्राणप्रतिष्ठा और सूर्यमंत्र की विधि सम्पन्न् की गई। मुनि योगसागर महाराज ने गहरे ध्यानपूर्वक मुनि सुव्रतनाथ भगवान की जिन प्रतिमा में जैसे ही सूर्यमंत्र का संचार किया,तत्क्षण आश्चर्यजनक रूप से मूर्ति के तेज में कई गुना वृद्धि हो गई। इसी के साथ अद्भुत-अनुपम आभा जिनबिम्ब से प्रकट हुई। जिसे विस्मयविमुग्ध-भाव से देखकर सभी श्रद्धालु भाव-विभोर होकर झूमने लगे-गाने लगे। अवनि ऊपर, अंबर नीचे, जिन मंदिर साकार, वर्णी गुरुकुल मुनि सुव्रतनाथ की प्रतिमा मंगलकार, दृश्य मनोहर, छटा मनोहर, जिनधर्म है तारणहार, त्रिलोकपूज्य मुनि सुव्रतनाथ की बोलो जय-जयकार।
शुक्रवार को दोपहर ठीक 12 बजे से मुनि सुव्रतनाथ भगवान के नवनिर्मित जिनालय में ब्रह्मचारीगण भक्ति-ध्यान, मंत्र-आराधना में लीन हो गए। 2 घंटे की इस साधना के बाद सभी की दृष्टि अनवरत प्रभु की उस श्यामवर्ण पद्मासिनी मूरत पर टिकी रहीं, जिसकी प्राण-प्रतिष्ठा के लिए पंचकल्याणक का आयोजन किया गया। गर्भ, जन्म और तप-मुनि दीक्षा रूपी तीन कल्याणकों के बाद कैवल्य ज्ञान कल्याणक भी पूर्ण विधि-विधान से सम्पन्न् किया गया। इसी के साथ दर्पण की तरह साफ हो गया कि पंचकल्याणक अनंतकालीन जीवन-यात्रा का अंतिम मधुर संगीत है, जो सदा के लिए अनंत आनंद में डुबो देता है।
*मोह-अज्ञान के तिमिर को भेदकर कैवल्य-ज्ञान का सूर्योदय हुआ* : कैवल्य-ज्ञान हो गया, झलका लोकालोक, सुरनर मुनिगण बोलते जय आदिश्वर देव-जय मुनि सुव्रतदेव। मोह के अंधेरे को भेदकर, अज्ञान के तिमिर को भेदकर, प्रभु के जीवन में घातीय-कर्मों के नष्ट होने पर कैवल्य-ज्ञान रूपी सूर्य का उदय हुआ। इस सूर्योदय के साथ संपूर्ण जगत प्रभु के ज्ञान में हाथ में रखे आंवले की तरह स्पष्ट झलकने लगा। उस ज्ञान के आलोक में भगवान ने आत्मा से परमात्मा की विधि, जीव-अजीव, आश्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष सात तत्व पुण्य-पाप दो मिलाकर 9 पदार्थों का उपदेश दिया। प्रभु ने कहा आत्मा पृथक है, शरीर पृथक है। यही भेदविज्ञान आत्मा को परमात्मा बना सकता है।
*साधक पर-संयोगों को हेय मानकर निरंतर आत्मध्यान करें* : कैवल्य-ज्ञान कल्याणक से शिक्षा मिली कि इस जगत में किंचित मात्र भी मेरा नहीं है। यहां तक कि मेरा जो शरीर है, वह भी मैं नहीं हूं। शरीर भिन्न् है, मैं भिन्न् हूं। इसी अनुभूति-आत्मानुभूति के धरातल पर जीवन में कैवल्य सूर्य की उपलब्धि होती है। अत: पर-संयोगों को हेय मानकर निरंतर आत्मध्यान साधक को करना चाहिए।
*छठवें दिन समवशरण की रचना का विधान हुआ* : रविवार 17 फरवरी से शुरू हुए पंचकल्याणक प्रतिष्ठा-गजरथ महोत्सव के छठवें दिन शुक्रवार 22 फरवरी को कैवल्य ज्ञान-कल्याणक के संदर्भ में समवशरण की रचना की गई। दरअसल, कैवल्य-ज्ञान होने के बाद विश्व के सबसे प्रतिष्ठित धर्मोपदेशपीठ से जो धर्मोपदेश होता है, वह जिनेन्द्र भगवान की धर्मोपदेश सभा का जो आसन है, वह है-समवशरण। धरती के वक्षस्थल पर अखिल विश्व का गौरव है-समवशरण। अखिल विश्व का इसलिए क्योंकि जब भगवान को कैवल्य-ज्ञान होता है, तो संपूर्ण वसुधा के अधिपति-चक्रवर्ती, राजा-महाराजा-सम्राट वहां नतमस्तक होते हैं और उनकी धर्मोपदेश सभा में पशु, त्रियंक, मनुष्य, देव, सुर-असुर सभी जीव उस वाणी को सुनते हैं। कैवल्य-ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में ही गजरथ-स्थल पर श्री मज्जिनेन्द्र पंकल्याणक प्रतिष्ठा अंतर्गत दिव्य-समवशरण की रचना की गई, जिस पर भगवान विराजमान हुए।
*संसार में जीव का सबसे बड़ा शत्रु है अज्ञान* : कैवल्य-ज्ञान के पावन संदर्भ में विधानाचार्य त्रिलोक जी ने कहा-''संसार में जीव का सबसे बड़ा कोई शत्रु है, तो वो अज्ञान है। संसार में सबसे बड़ा कोई पाप है, तो वो अज्ञान है। शेष पाप इस अज्ञान रूपी पाप की परछाइयां हैं। अत: जैसे बने वैसे जीवन में ज्ञान का सूर्य प्रगटाना चाहिए। ज्ञान की आराधना करनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि ज्ञान इस जीव का सबसे बड़ा मित्र है। हमारा सौभाग्य है कि संत शिरोमणि गुरुदेव आचार्य विद्यासागर महाराज के शिष्य मुनि योगसागर अपने ससंघ सानिध्य के माध्यम से हम सभी को ज्ञान के आलोक से लाभान्वित कर रहे हैं। अपने तप, त्याग और तपस्या से आत्मा को शुद्ध बनाने की कला सिखा रहे हैं। धन्य हैं हम सब कि ऐसे महामुनिराज के साक्षात दर्शन कर रहे हैं।
*अर्हन्त भगवान वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं* : जैन दर्शन के अनुसार कैवल्य-ज्ञान होने के बाद जिस भगवत अवस्था में तीनों लोकों के देव पूजते हैं, वह अर्हन्त पद की प्राप्ति होती है। अर्हन्त भगवान वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं।
*भगवान के जीवन में उस परम आनंद की उपलब्धि हुई* : कृष्ण्ापक्ष की काली-कजरारी भयानक रात्रि में किसी जंगल में भटके हुए जीव का जो भय होता है, डर होता है, मन में जो आतंक होता हैं, जिस जीव ने ऐसी भयानक रात डर के साए में गुजारी हो, उस जीव के लिए भोर की प्रथम-किरण के साथ ही मार्ग दृष्टिगोचर होने पर जिस आनंद की वर्षा और अनुभूति होती है, उस आनंद की व्याख्या वह व्यक्ति ही समझ सकता है। मोह के भयानक अंधेरे में फंसा जीव भी मोहकर्ता होता है, वह स्वआत्मा को नहीं देखता, जो अपना है, उसे नहीं देखता बल्कि पराए को अपना मानता है और जब ठगा जाता है, तो दुखी होता है, यह मोह का सबसे बड़ा दुख है। मोह की भयानक गहवर अंधेरी रात्रि में जब किसी जीव के जीव में भेदज्ञान के आलोक में ज्ञानसूर्य का उदय होता हे, उस ज्ञानसूर्य के आलोक में जब अपनी निज संपत्ति, जिन आत्मा, निज ध्यान, निज वैभव को जीव पहचानता है, उस समय जो आनंद होता है, वह आनंद अवर्णनीय है। उसका वर्णन नहीं हो सकता। उस आनंद की अनुभूति वही साधक करते हैं, जो तपश्चर्या में डूब जाते हैं। इसी भावभूमि पर गुरुकुल में पंचकल्याणक अंतर्गत कैवल्य-ज्ञान कल्याणक के माध्यम से भगवान के जीवन में उस परम आनंद की उपलब्धि हुई।